- डा. सुनील केरकेट्टा
देशव्यापी स्तर पर आदिवासियों के लिए कोई एक धर्म के नामकरण का मुकम्मल प्रयास सामूहिक तौर पर नहीं किया गया। मसलन हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, जैन और ईसाई। इसके कई कारण हो सकते हैं क्योंकि आदिवासी देश ही नहीं, राज्य के भीतर भी सैकड़ों कबीलों (समुदाय) में बंटे हुए हैं। इन कबीलों से केन्द्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करने वाला कोई बौद्धिक वर्ग या सामाजिक कार्यकर्ता नहीं उभरा, जो इनको (कबीलों) एक मंच पर खड़ा करके, इनके धार्मिक मुद्दे को चर्चा का केन्द्रीय विषय बनाये। साथ-ही-साथ संविधान सभा के आदिवासी नेताओं का ध्यान भी इस ओर नहीं गया, जो इस पर कोई विशेष पहल कर सकें। धर्म का सवाल आज भी आदिवासियों के समक्ष एक चुनौती के रूप में खड़ा है।
‘संस्कृति पुरुष’ डा॰ रामदयाल मुण्डा को आदिवासी जीवन-दर्शन, सरना धरम, भाषा, संस्कृति और इतिहास की न केवल तार्किक समझ थी, बल्कि गहरी दिलचस्पी भी रखते थे। क्योंकि वे स्वयं ‘पहान’ के बेटे थे। इन्होंने आदिवासियों के धरम (धर्म) कोड के बारे में पहली बार आवाज मुखर की जो एक सकारात्मक पहल थी। धर्म के संदर्भ में असंगठित आदिवासियों की वस्तुस्थिति पर उनका चिंतित होना स्वाभाविक था, क्योंकि वे जानते थे कि धरम कोड के अभाव में आदिवासियों का राजनीतिक और आर्थिक हित दिनों-दिन क्षीण होते जा रहा है।
भारतीय जनगणना पद्धति में आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय से चिंतित डा॰ रामदयाल मुंडा ने अपनी पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है ‘‘आदिवासियों का कुछ हिस्सा ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध मतावलंबी हो गया है। उस सारी आबादी (करीब 2 करोड़) को अलग कर दिया जाए तो बाकी करीब 8 करोड़ की पहचान हिन्दू के रूप में ही कर दी गई है, जो कि सही नहीं है। हमारा मानना है कि आदिवासियों की मूल धार्मिक पहचान हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई से अलग ही है। इन धर्मों में से हर एक के साथ आदिवासियों के धार्मिक विश्वासों की समानता कुछ अंशों में हो सकती है और उन्हें कहीं-कहीं हिन्दू जैसा, मुस्लिम-जैसा, ईसाई-जैसा कहा जा सकता है। किन्तु हिन्दू-जैसा होना और बिल्कुल हिन्दू होना दोनों एक बात नहीं है जैसा कि अभी मानकर चला जा रहा है। इस तरह से आदिवासियों के धार्मिक वैशिष्ट्य को बिल्कुल ही अनदेखा कर उसके साथ अन्याय किया जा रहा है।’’
रामदयाल मुण्डा का चिंतित होना स्वाभाविक है क्योंकि धार्मिक कोड के बिना हमारी जनसंख्या जनगणना के समय संदेह की स्थिति में बंट जाती है, जिससे इनकी जनसंख्या ठीक-ठीक पता नहीं चल पाती और जिसका खामियाजा विकास योजनाओं पर पड़ता है। ठोस आदिवासी जनगणना के अभाव में बजट उनके अनुरूप नहीं बन पाता है। रामदयाल मुण्डा जी आदिवासियों की सारी धार्मिक आस्थाओं को ‘आदि धरम’ के अंतर्गत सम्मिलित करने के हिमायती थे, क्योंकि वे उनके महत्व को समझते थे।
यह स्पष्ट कर दूँ कि झारखंड के समस्त आदिवासियों के धरम को सरना धरम कहते हैं। सरना आदिवासियों का प्रमुख पूजा स्थान है। सरना धर्म प्रकृति की शक्तियों की उपासना का धर्म है। प्रकृति की शक्तियाँ ही देवता हैं जिन्हें मुंडारी में ‘बोंगा’ कहते हैं। यह वीर भारत तलवार का सटीक तर्क है, क्योंकि आदिवासी प्रकृति की शक्तियों को स्वीकार करते हैं, डरते हैं और उसे खुश करने का प्रयास करते हैं। प्रकृति के साथ इनका न केवल आर्थिक बल्कि धार्मिक-सांस्कृतिक संबंध भी रहा है।
मानवशास्त्री, चिंतक रामदयाल मुण्डा और रतन सिंह मानकी ने अपनी पुस्तक ‘आदि धरम’ में ग्यारह सामूहिक पूजन अनुष्ठान एवं मंत्रापाठ का मुण्डारी और हिंदी दोनों भाषा में व्याख्यायित किया है। इससे स्पष्ट है कि आदिवासियों के प्रत्येक कार्य प्रारंभ करने के पूर्व सामूहिक पूजा की जाती है। कार्य की सफलता के लिए एवं देवता द्वारा दिये गये फसलों के लिए उसको याद किया जाता है। उन अनुष्ठानों का क्रम इस प्रकार है-
- ‘‘सोसाबोंगा/भेजवापूजन अनुष्ठान एवं मंत्रापाठ
- गाराम बेंगा/ग्राम पूजन अनुष्ठान एवं मंत्रापाठ
- फागु सेन्दराबोंगा/फगुआ आखेट अनुष्ठान एवं मंत्रापाठ
- बा (हा) बोंगा/सरहुल पूजन अनुष्ठान एवं मंत्रापाठ
- हेर पुना/प्रथम बोआई अनुष्ठान एवं मंत्रापाठ
- रोआ पुना/ प्रथम रोपनी अनुष्ठान एवं मंत्रापाठ
- काराम बोंगा/करम पूजन अनुष्ठान एवं मंत्रापाठ
- जोमनावा बोंगा/नावाखानी पूजन अनुष्ठान एवं मंत्रापाठ
- सोओराई बोंगा/सोहराई पूजन अनुष्ठान एवं मंत्रापाठ
- एन पुना/प्रथम मिसाई अनुष्ठान एवं मंत्रपाठ
- मराङबुरू बोंगा/बड़पहाड़ी पूजन अनुष्ठान एवं मंत्रपाठ’’
ये मुंडा आदिवासियों के सामूहिक अनुष्ठान हैं जो धरम के ही विविध पाठ हैं। कमोबेश झारखंड के अधिकतर आदिवासियों में ये अनुष्ठान संपन्न कराये जाते हैं। रामदयाल मुण्डा जी इन्हीं धार्मिक प्रारूपों के आधार पर भारतीय आदिवासी धरम कोड की मांग पर जोर दे रहे थे जो भारत के विभिन्न कोनों में फैले आदिवासियों के लिए धार्मिक पहचान का एक आधार बनता। धर्म कोड की मांग के लिए झारखंड के आदिवासी समुदायों ने राज्य व देश की राजधानी रांची और दिल्ली के जंतर-मंतर पर समय-समय पर धरना, प्रदर्शन और जुलूस करते रहते हैं, जो उनके धार्मिक संघर्ष को उजागर करता है।
डा. सुनील केरकेट्टा संत जेवियर कॉलेज, सिमडेगा में प्राध्यापक हैं। वे लिखते हैं, पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं। इनके लेख, कविताएं और कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।