• कुमारी रूमा सांडिल

हेरॉल्ड सैमसन तोपनो’ हिंदी के पहले आदिवासी विमर्शकार हैं। इनका लोकप्रिय नाम ‘साम’ू है। सामू का जन्म 02 नवम्बर, 1953 को रात 10 बजे ‘आया कोचा’ कांके, रांची स्थित घर में हुआ। इनके माता-पिता का नाम राहिल सांगा और प्रेमचंद तोपनो है, ये दंपति कांके स्थित रिनपास (पागलखाना) में कार्यरत थे। हेरॉल्ड सर्वोदय विद्यालय, बोड़ेया (रांची) से मैट्रिक और डाल्टनगंज से आईटीआई तक की शिक्षा ग्रहण किये थे। इनका व्यक्तित्व सरल, मिलनसार और मददगार प्र्रवृति का था। जब ये अपना विचार साझा करते थे तो देश-दुनिया की जानकारियां, जमीनी हकीकतों, राजनैतिक समझ और आदिवासी संस्कृति के मूल्यों में पगे उनके शब्द ऐसी दुनिया रचते थे, जिसके सम्मोहन से बाहर निकल पाना आसान नहीं होता था। 42 साल की उम्र में 12 नवम्बर, 1995 को इनकी असामयिक मृत्यु हो गई। किन्तु अभी भी जन-मानस के हृदय में पहले की भांति सामू की वैचारिक उपस्थिति को हम उतनी ही प्रमुखता से पाते हैं।

झारखण्ड के रहने वाले हेरॉल्ड एक युवा मुण्डा आदिवासी स्वर थे। अस्सी-नब्बे के दशक में झारखण्ड आन्दोलन का जो नया दौर शुरू हुआ था, उसकी सबसे प्रखर बौद्धिक आवाज हेरॉल्ड ही थे। आदिवासियत के दर्शन और सघर्ष को अपने विचारों और लेखनी से उन्होंने ही सबसे पहले सैद्धांतिक तौर पर सामने लाने का काम किया। आदिवासी सवालों पर लिखते हुए हेरॉल्ड भारतीय शासक वर्गो की मौजूदा नीतियों, कार्यक्रमों और विकासीय परियोजनाओं पर तीखे प्रहार करते और उनकी अमानवीय-अप्राकृतिक दोहन मंशा को परत दर परत उधेड़ते। उनके लेखों को अध्ययन करने से साफ झलकता है कि उनका मन आदिवासी समाज की दुर्गति को देखकर टूटता है। वे अपने लेखों के माध्यम से उसे आदिवासी संस्कृति, समाज, भाषा आदि को मजबूती प्रदान करने की प्रयास करते हैं।

अपने लेखों मेें उन्होंने दिखाया है कि उपनिवेशवाद के कारण आदिवासियों का क्या हुआ? वे किस तरह अपने समाज से कट गये और संवेदनहीन होते चले गये क्योंकि वे पारम्परिक सामाजिकता से भी कटते चले गये। देश-राज्य के सामंती समाज और कारोबारी लुटेरे वर्ग तो आदिवासियों पर भांति-भांति के कहर ढाह ही रहे हैं। मुख्यधारा के लोग एक तरफ आदिवासियों से सहानुभूति दिखाने का ढांेग करते हैं तो दूसरी तरफ इनके नाम पर आवंटित सरकारी धन को गैर सरकारी संगठनों के सहारे या सीधे भ्रष्टाचार आदि के रास्ते लूट लेने को भी अपना कर्त्तव्य समझते हैं। आदिवासियों को विकास के नाम पर उठाये गये कदमों का प्रत्यक्ष प्रभाव आजादी के बाद से देखने को मिलता है। आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर उनकी सदियों से निर्मित पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था नष्ट कर दी गई है।

हेरॉल्ड एस॰ तोपनो ने झारखण्ड के प्रमुख समस्याओं पर बार-बार लिखा है और बड़े परिमाण में लिखकर प्रतिष्ठा अर्जित की है। उनके लेखों के संबंध में उनका अभिमत विचारोत्तेजक है। आदिवासियों का दृष्टिकोण और उनकी समस्याओं को विभिन्न स्तरों पर सशक्त एवं सही ढंग से रखना उनका ध्येय रहा है जिसे उन्होंने बखूबी किया। साथ ही उन्होंने आदिवासियों की समस्याओं और संघर्ष को एक व्यापक संदर्भ में देखने का प्रयास किया।

मुंडारी समुदाय की रूमा सांडिल हिंदी विभाग, रांची विश्वविद्यालय, रांची की पीएच.डी. स्कॉलर हैं।