- वंदना टेटे
चकोड़ा को जोरमेसिः घुड़लो सितिलते
हो चकोड़ इघय केलोम योेता
कामे सेरे आजीडय कोबसोरेम
कोबसोरेम रो मंडाः झोर तेरेम
इस खड़िया पुरखागीत में भाभी से कहा जा रहा है- चकोड़ (चकवड़) साग गन्दूर गड्ढे के किनारे उगा है, कितना सुंदर दिख रहा है, भाभी तोड़ो और सुखाओ, सुखाकर मांड़ झोर देना।
हमारा खान-पान हमारे भौगोलिक परिवेश-मिट्टी में किस मौसम में क्या उपज होगी, कम होगी- बहुतायत से होगी ये प्रकृति प्रदत्त है। आज भले ही हम वैज्ञानिक अविष्कारों, तकनीकों का सहारा लेकर फसलों को हर जगह उपजा ले रहे हैं यह भी तब ही हो पा रहा है जब थोड़ा बहुत उस पौधे-फसल के गृह प्रदेश जैसा हो। वहां का वातावरण और हमारा खान-पान, पाक-पकवान भी बहुतायत से होने वाले फसल के अनुसार ही होते हैं। जैसे कि दक्षिण भारत में नारियल के तेल में खाने की चीजें पकायी जाती हैं। हर चीज में अधिकांशतः नारियल शामिल होता है। और तो और नारियल के कई सुस्वादु पकवान बनते हैं। वहीं राजस्थान में देखिए- ज्वार-बाजरे-मकई की कई खाद्य सामग्री मिल जाएगी।
भारत एक कृषि प्रधान देश है जहां खेती मानसून पर निर्भर करती है। मुख्यतः धान, गेहूँ, मकई, ज्वार, बाजरे और दलहन में अरहर, मसूर, मूंग, चना, उड़द की खेती ज्यादातर होती है। किन्तु कई प्रदेश ऐसे हैं जहां इनके अलावे मड़ुवा, गोंदली, कुरथी, खेसारी की फसल होती है। जैसे हमारा झारखंड। खेती के साथ ही कई फल-फूल हमारे खाद्य-सामग्री में शामिल हैं- महुआ, सखुआ, कुसुम, कटहल, डुम्बर, मुनगा आदि। वहीं स्थानीय तेलहन की फसलें- जैसे – डोरीे (महुए के फल का तेल), कुसुम, सरसों, नारियल, मूंगफली, सरगुजा, सोयाबीन बहुतायत से उपजायी जाती है और दैनदिनी जीवनचर्या में हम इनका प्रयोग करते हैं।
उपज, आहार शैली, भौगोलिक परिवेश और स्वास्थ्य का आपस में गहरा संबंध होता है। हमारा शरीर भी एक खास जलवायु का अभ्यस्त होता है। एक विशेष जलवायु और भौगोलिक परिवेश में उपलब्धता के आधार पर सृष्टि (प्रकृति) इंसान के लिए विकल्प उपलब्ध कराती है और व्यक्ति को पोषण देती और स्वस्थ रखती है। हालांकि इंसान ने सभ्यता और तकनीकी विकास से भौगोलिक परिवेश और जलवायु सीमाओं से खुद को स्वनिर्भर बनाने की हरसंभव कोशिश की है और इस दिशा में आज भी प्रयत्नशील है।
परंतु पूंजी की प्रधानता और असमानता पर टिकी सभ्यता की इस व्यवस्था में विकास का फल सभी को सहजता के साथ उपलब्ध नहीं है। अपनी आवश्यकता के लिए आम व्यक्ति अभी भी अपने प्राकृतिक-भौगोलिक परिवेश में उपलब्ध चीजों पर निर्भर है। पर बदलते वैश्विक परिवेश में अब उसे यहां भी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। क्योंकि जो वैज्ञानिक अविष्कार, रसायनिक खाद, और बीज हाईब्रिड फसलों के रूप में लोगों के बीच लाये गए। उसने फायदे के साथ-साथ नुकसान भी पहुंचाया। जैसे रसायनिक खादों को सरकार ने मुफ्त, कम कीमत या सब्सीडी देकर ज्यादा फसल की उम्मीद में खेतों में डलवाया जिससे जैव विविधता पर आधारित परंपरागत खेती प्रक्रिया बाधित हुई। लंबे समय के रसायनिक खादों के प्रयोगों ने जैविक खाद की जगह ली, जिसने गोबर खाद, केचुवों को मारा एवं मिट्टी खराब की। फसल की प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली को तो नुकसान पहुंचाया ही इंसान के लिए सर्वसुलभ प्रोटीन के स्रोत- घोंघी, मछलियां आदि को भी खत्म किया। वहीं हाइब्रीड बीजों ने फसल तो दिए पर स्थानीय बीजों को खत्म किया।
अब जाकर लोगों ने हाइब्रीड फसल और स्थानीय बीज से उपजे फसल के अंतर, स्वाद, रखरखाव, फायदे को समझा। और अब लोग वापस जैविक खेती की ओर लौट रहे हैं। अर्थात् गोबर, कंचुए, घोंघें, मछली आदि मिलकर जो पारिस्थिकीय तंत्र का निर्माण करते थे, जो विविध तरीकों से लाभाकारी था, उसकी वापसी चाहने लगे हैं।
वंदना टेटे देश की जानी-मानी आदिवासी लैंवेज डिफेंडर और आदिवासियत की पैरोकार व सिद्धांतकार हैं। संपर्क: vandnatete@gmail.com