- अश्विनी कुमार पंकज
झारखंड के अनेक शहीद अभी तक इतिहास में गुमनाम हैं। इनमें से एक हैं हजारीबाग के शहीद गुरदयाल महतो जो आज से 117 साल पहले शहीद हुए थे। इनकी शहादत की तिथि का पता नहीं चल पाया है परंतु टाइम्स ऑफ इंडिया के 26 अप्रैल 1900 के अंक में छपी खबर से मालूम पड़ता है कि वे जनवरी से मार्च 1900 के बीच शहीद हुए थे। इसी खबर में गुरदयाल महतो की नृशंस हत्या के खिलाफ चली अदालती कार्रवाई का वर्णन है। खबर के अनुसार हजारीबाग के चीफ एक्जक्यूटिव इंजीनियर सी. डब्ल्यू. सिबल्ड ने गुरदयाल महतो को ‘सलामी’ से इनकार करने पर बहुत ही क्रूर ढंग से सरेआम मार डाला था। गुलाम भारत में किसी अंग्रेज को ‘सलाम’ नहीं करना शहीद गुरुदयाल के राष्ट्रीय स्वाभिमान और देशभक्ति के उस जज्बे को प्रदर्शित करती है जो उन दिनों झारखंड में चहुंओर व्याप्त थी। ब्रिटिश राज के खिलाफ तब बिरसा मुंडा के नेतृत्व में उलगुलान अपने चरम पर था।
24 अप्रैल 1900 को हाईकोर्ट में गुरदयाल हत्या केस की आखिरी सुनवाई हुई थी। अदालत में चली बहस से पूरी घटना की जानकारी मिलती है। जिसके अनुसार अंग्रेज इंजीनियर सिबल्ड की घर के सामने की सड़क से गुजरते हुए घोड़े पर सवार गुरदयाल महतो ने उसकी अनदेखी की। हजारीबाग ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित परंपरा के अनुसार शहीद महतो को घोड़े से उतर जाना था और उसे ‘सलाम’ करना था। लेकिन गुरदयाल महतो न घोड़े से उतरे और न ही झुककर सलाम पेश किया। उस वक्त इंजीनियर सिबल्ड अपने दोस्त मीजर्स के साथ बंगले के अहाते में बैठा हुआ था। मीजर्स ने सिबल्ड को सचेत किया कि गुरदयाल बगैर सलामी दिए उसके सामने से गुजर रहा है। इस पर सिबल्ड ने गुरदयाल महतो को अपशब्द बकते हुए सलाम करने को कहा। तब भी निर्भीक शहीद गुरदयाल ने सलामी नहीं दी।
कुछ आगे चले जाने के बाद गुरदयाल वापस लौटे और घोड़े पर बैठे-बैठे ही सिबल्ड को जोर से कहा कि वह उनको सलाम करने के लिए बाध्य नहीं हैं। अच्छा होगा कि वह अपना मुंह बंद रखे और उनको अपशब्द न कहे। इतना कहकर गुरदयाल महतो पलटकर अपनी राह चल पड़े। तब सिबल्ड अपने साथी और नौकरों के साथ उनके पीछे दौड़ा। बोला, तुरंत घोड़े से उतरो और सलाम करो। उसको सलाम किए बिना वह नहीं जा सकते। बहादुर गुरुदयाल महतो ने साहसपूर्वक जवाब दिया – ‘मैं किसी को सलाम नहीं करता और मेरे मिजाज में भी सलामी नहीं है। हट जाओ मेरे रास्ते से’। इस पर सिबल्ड ने उनको घोड़े से खींचा। रकाब में पैर फंसे होने के कारण वे संभल नहीं पाए और नीचे गिर पड़े। इससे उनका माथा फट गया। गिरते ही सिबल्ड अपने कारिंदों के साथ उन पर टूट पड़ा। फिर भी अकेले गुरुदयाल उससे भिड़ पड़े। पर वे ज्यादा समय तक टिक नहीं पाए। माथे से बहते हुए खून के कारण अचेत होकर गिर पड़े। इस पर भी क्रूर सिबल्ड का मन नहीं भरा। उसने अचेत गुरुदयाल की आंख में अपनी लोहे की ‘गुप्ती’ घुसेड़ दी जो भेजा फाड़ते हुए खोपड़ी के पार जा निकली। मौके पर ही गुरुदयाल ने दम तोड़ दिया। भारतीय स्वाभिमान और झारखंड की शहीदी परंपरा को बरकरार रखते हुए वे शहीद हो गए।
शहीद गुरदयाल महतो की हत्या सरेआम हुई थी जिसे छुपाना आसान नहीं था। हत्या के खिलाफ हजारीबाग ही नहीं रांची और कोलकाता तक सरकार की आलोचना होने लगी। सरकार उस समय पहले से ही बिरसा मुंडा के उलगुलान से परेशान थी। जनदबाव में सरकार को हत्या का केस दर्ज करना पड़ा। लेकिन जिला कोर्ट ने सिबल्ड को बरी कर दिया। इस पर भी बवाल हुआ होगा। तभी केस को री-ओपन करना पड़ा और कलकत्ता हाईकोर्ट में सुनवाई चली। 24 अप्रैल 1900 को दो न्यायाधिशों, जस्टिस प्रिन्सेप और जस्टिस हेडली की बेंच ने सी. डब्ल्यू. सिबल्ड को दोषी करार पाया। परंतु उसे बहुत मामूली सजा दी, चार महीने का साधारण कारावास और 1000 रुपये जुर्माना। हत्या के लिए नहीं, इस बात के लिए कि शहीद गुरदयाल महतो ने सिबल्ड को बहन की गाली दी थी जिसकी प्रतिक्रिया में झड़प हुई और दुर्भाग्य से उनकी मृत्यु हो गई। अफसोस गुरुदयाल का यह शहीदी किस्सा झारखंड के इतिहास में भी नहीं है। उनको हूल जोहार।
अश्विनी कुमार पंकज देश के जाने-माने आदिवासी विषयक स्टोरीटेलर हैं।
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