- पार्वती तिर्की
झारखण्ड की भूमि पर बहिरागतों के प्रवेश के साथ ही विघटित हो रही आदिवासी संस्कृति के दर्द ने लगभग नब्बे के दशक में डा॰ रामदयाल मुंडा को साहित्य के साथ ही अपनी संस्कृति के बचाव में कर्मभूमि पर स्वयं उतरने को अग्रसर किया। हम कह सकते है प्रथमतः डा॰ रामदयाल मुंडा ने चली आ रही वाचिक परंपरा को अपनी रचना द्वारा साहित्यिक भूमि देकर आदिवासी लेखन को एक दिशा प्रदान की। आदिवासी जीवन की पीड़ा को लेकर डा॰ मुंडा ने गेय काव्यों के माध्यम से साहित्य की भूमि में प्रविष्ट होते हैं। जिसे हम भावतिरेक की दृष्टि से मानव वाणी की गीतात्मक रूप ले लेने वाले हिंदी साहित्य जगत के मीरा की व्यथासिक्त पदावलि की गीतात्मकता, कबीर के तत्वदर्शन पद की संगीतात्मकता के लगभग समझ सकते हैं कि किस प्रकार अतिशय पीड़ा में कवि हृदय करूण राग अलापता है।
हालाँकि मुंडा जी का काव्य राग भिन्न प्रकार का आदिम जीवन का राग है। प्रकृति में कृत्रिमता के मिलावट से उत्पन्न दूषितता का मुंडा जी के काव्यों में झलक है। प्रकृति और आदिवासी जीवन का अंकन है मुंडा जी का काव्य। नदियों का मानव रूप में व्यथित चित्राण और शब्दों का प्रयोग मुंडा जी के काव्यों के अलावा अन्यत्र नहीं है। ‘विरोध’ कविता में बहिरागतों द्वारा आदिवासी की चिर सहचरी के साथ खिलवाड़ का भली भांति अंकन है- ‘‘उसे बांधकर ले जा रहे थे/राजा के सेनानी और नदी छाती पीट कर रो रही थी/लौटा दो, लौटा दो, मुझे मेरा पानी’’।
पानी का युवती के रूप में छाती पीट कर पीड़ा व्यक्त करना मुंडा जी के काव्यों में ही देखा जा सकता है। पानी जिसका स्वरूप ही है सदैव बहना, उसे भी मानव ने बंधक बना लिया है। जिसके परिणामस्वरूप यह होता है कि वह ‘गंदला’ जाती है जिसे मुंडा जी ‘सीख’ नामक कविता से व्यक्त करते हैं-‘‘नदी जब रुकी/गंदला गयी/समझने वालों को बात/कुछ बतला गयी/चलना ही है जीवन की निशानी/बहने दो पानी’’ मुंडा जी का ‘गंदला’ शब्द का प्रयोग अद्भुत है जो उस स्थिति के काफी करीब है। मुंडा जी नदी और पानी को उसके उसी स्वरूप में देखना चाहते हैं जो उसका है।
मुंडा जी आदिवासी और प्रकृति प्रेम का चित्रांकन कुछ इस प्रकार करते हैं-‘‘अगर तुम पेड़ होते और मैं पंछी/तुम्हारे पेड़ पर डेरा डालता/अगर तुम झाड़ी होते और मैं तीतर/तुम्हारी झाड़ी में ही वास करता’’ प्रकृति से इतना प्रेम की स्वयं का पंछी बन सूर्योदय-सूर्यास्त के साथ ही गीतों से संवाद की कल्पना करता है कवि मन। साथ ही आदिवासी जीवन के कर्म सौंदर्य का चित्रण करते हुए किसान को भगवान की उपमा देते हुए लिखते हैं-‘‘भगवान हल चलने निकल गए’’। युवक अपने कंधे पर बहिंगा लिए और युवती सिर पर टोकरी लिए नया बांध और खेत कोड़ने निकल गए हैं। इसके साथ ही मुंडा जी के काव्य में विभिन्न संस्कृतियों से अलगाव का चित्रण भी देखने को मिलता है-‘‘लोगों के कहने से/कह तो दिया साथ बहेंगे/पर मन नहीं मिल पाया/गंगा का पानी अलग है/अलग है यमुना का पानी’’।
उपरोक्त काव्य पंक्तियों से संस्कृतियों के पृथक दृष्टिकोण, पृथक सभ्यता का अंकन किया है। अन्य संस्कृति के संसर्ग में आने से मिश्रित होती संस्कृति का चित्राण कुछ अलग तरह के उपमानों के प्रयोग द्वारा करते हैं-‘‘सर पर मटका/मटके पर मटका/हाथों पर कांच की चूड़ियाँ खन-खन …नल पर से घर लचकती कमर ऐसे चलती हो जैसे-ईंट लदी, मिट्टी सनी, डीजल ट्रक/सर्कुलर रोड पर’’। अन्य संस्कृति के प्रवेश से आदिम संस्कृति में बढ़ती विसंगतियों का भी चित्राण ‘इंकार’ कविता से किया है। पहाड़ नदी और पानी के रूपक में पुरुष, कुंवारी और नारायज संतान की कहानी को व्यक्त किया है। बहिरागत दिकुओं की आदिवासी स्त्रियों के प्रति कुत्सित दृष्टि, अभद्र व्यवहार का अंकन करते हैं।
डा॰ रामदयाल मुंडा का काव्य प्रकृति, प्रकृति की पीड़ाओं, आदिवासी और आदिवासी जीवन का काव्य लेकर आदिवासी संस्कृति के वाहक के रूप में आता हैं। प्रकृति से प्रेम, प्रेम की अतिशयता, उसकी रखवाली, प्रकृति से खिलवाड़ पर चेतावनी, उसकी चिंता इत्यादि विभिन्न रूप में चित्रण उनके काव्यों में झलकता है। प्रकृति का साथी के रूप में आदिवासी का चित्रण अन्यत्र देखने को नहीं मिलता।
इन सबके अलावा डा॰ रामदयाल मुंडा आदिवासी संस्कृति के रखवाले बन कर कर्मभूमि पर उतरने वाले कवि ही नहीं है अपितु प्रखर रूप से आदिवासी संस्कृति के सामाजिक पहचान को लेकर ‘‘आदि धर्म’’ का विकल्प लेकर आने वाले प्रथम सांस्कृतिक-आध्यात्मिक अगुआ हैं।
पार्वती तिर्की काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के हिंदी विभाग की शोधार्थी हैं।